राष्ट्रवाद और समाजवाद प्रासंगिकता

आज हम 'राष्ट्रवाद' और 'समाजवाद' की सार्थकता में इस कदर फंस गये है कि हमें राष्ट्रवाद और समाजवाद के बीच के वास्तविक अंतर को समझने में असहजता महसूस हो रही है। आम तौर पर मुझे लगता है कि राष्ट्र जितना जरूरी होता है उससे कहीं ज्यादा समाज की जरूरत महसूस की जाती है, ठीक उसी प्रकार आम जन के लिए जितना जरूरी राष्ट्रवाद होता है उससे कहीं अधिक समाजवाद का होना आवश्यक है।

राष्ट्रवाद और समाजवाद प्रासंगिकता

आज हम 'राष्ट्रवाद' और 'समाजवाद' की सार्थकता में इस कदर फंस गये है कि हमें राष्ट्रवाद और समाजवाद के बीच के वास्तविक अंतर को समझने में असहजता महसूस हो रही है। आम तौर पर मुझे लगता है कि राष्ट्र जितना जरूरी होता है उससे कहीं ज्यादा समाज की जरूरत महसूस की जाती है, ठीक उसी प्रकार आम जन के लिए जितना जरूरी राष्ट्रवाद होता है उससे कहीं अधिक समाजवाद का होना आवश्यक है।

डॉ ए पी जेअब्दुल कलाम  के शब्दों में-

राष्ट्र लोगो से मिलकर बनता है।और उनके प्रयासों से, कोई राष्ट्र जो कुछ भी चाहता हैउसे प्राप्त कर सकता है।

वीरेंद्र कुमार(comandent CRPF)

प्राचीन यूनानी दार्शनिक "अरस्तू" का मानना है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है मनुष्य समाज में ही रहता है तथा अपने व्यक्तित्व का विकारा पूर्ण रूप से रामाज में ही रहकर करता है। राज्य का जन्म मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ है और यही मनुष्य सशक्त राष्ट्र का निर्माण करते हैं। आधुनिक परिदृश्य में राष्ट्रवाद से तात्पर्य ऐसी भावना से है जिसमें लोग स्वयं के हितों से उपर उठकर अपने देश को सर्वश्रेष्ठ या सर्वोपरि मानते है साथ ही लोगो के उस समूह से है जो इतिहास, भाषा, सस्कृति, परम्परा, समता, समानता, स्वतंतत्रा, न्याय, बन्धुता और आपसी सौहार्द के आधार पर स्वयं को एकीकृत करता है या एकता के सूत्र में बांधता है। राष्ट्रवाद सामाजिक रुप से निर्मित नीतियों और राष्ट्र के अनुकूल जीवन शैली के माध्यम से एक राजनीतिक या राष्ट्रीय ईकाई के रूप में ठोस पहचान को बढ़ावा देता है। जिसमे सभी धर्म, जाति, मजहब, भाषा और क्षेत्र के लोग चाहे वह अमीर हो या गरीब हो, गांव का हो या शहर का हो, स्त्री हो या पुरुष, मजदूर हो या किसान हो, व्यापारी हो या नौकरी पेशा, सभी मिलकर एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करते है जो बन्धुत्व एवं आपसी भाई-चारा में बंधकर देश को एकता के सूत्र मे बांधता है 'राष्ट्रवाद कहलाता है।


जबकि समाजवाद से तात्पर्य एक ऐसी सामाजिक व्यवरथा से है जिसमे शिक्षा, धनसम्पत्ति व्यवसाय, व्यापार, रोजगार का स्वामित्व और उसके वितरण तथा नियत्रण पर समाज के सभी वर्गों का अधिकार होता है।  समाजवाद का सीधा मतलब है समाज के हर वर्ग को मजबूत करना है चाहे वह वर्ग शैक्षिक रूप से पिछड़ा हो, को आगे बढाने की बात हो या उसको व्यक्तिगत मानवीय अधिकार देने की बात हो या उसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, न्याय से संबधित अधिकारों की बात हो सभी क्षेत्रो में उसे आगे बढ़ाने में हमे एक दूसरे का मजबूत कन्धा बनना चाहिए ऐसी समाजवाद की संकल्पना है। 

आज हमारे समाज मे धर्म, जाति, मजहब, भाषा, क्षेत्रवाद और श्रेष्ठवाद के नाम पर समाज में जहर घोलने वाली विचारधारा पर अकुंश लगाना होगा तभी हम सच्चे अर्थों में समाजवाद की परिकल्पना को सही रुप से स्थापित कर पायेगें। यह राष्ट्र तब तक आगे नहीं बढ़ सकता जब तक सामाजिक हासिए पर खडे समुदायो, अनुसूचित जातियो, अनुसूचित जनजातियों, पिछडा वर्गों, अल्पसंख्यको, महिलाओं, मजदूरो, किसानों, विकलांगो आदि को समाज की मुख्यधारा में नहीं लाया जाता। हमे समाज में समता, समानता, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय राजनीतिक न्याय, बन्धुता और भाईचारा को स्थापित करना होगा तभी सही माईने में वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना सुनिश्चित की जा सकती है।

डॉ० भीमराव अम्बेडकर ने कहा था :-
राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है,जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग काअन्तर मुलाकर उनमे सामाजिक भ्रातृत्व को सर्वोच्य स्थान दिया जाये।

आजादी के 75 वर्ष बाद भी यह देखकर बडा दुःख होता है कि समाज का एक वर्ग जिसके पास न तो अपनी जमीन है, न अपना घर है, न नौकरी है, न रोजगार है और न ही परिवार का पालन-पोशण करने के लिए कोई साधन उपलब्ध है। आए दिन आत्महत्या करते किसान, स्कूल कालेज, डिग्री कालेज तथा अन्य शिक्षा संस्थानो और कोचिंगो की आसमान छूती फीस तथा शराब, बीडी, सिगरेट, तम्बाकू एवं ड्रग्स के नसे मे लत हमारी युवा पीढी एवं कैन्सर जैसी घातक बीमारियो ने समाज को जकड रखा है। ऐसे मे सच्चे राष्ट्रवाद की कल्पना कैसे साकार होगी ?

इसके विपरीत समाज का एक खास वर्ग जाति, धर्म, राजनीति पैसा, पावर, और श्रेष्ठता के आधार पर आम जनता पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। आए दिन सुनने में आता है कि अमुख वर्ग के व्यक्ति ने किसी निम्न जाति के वर्ग के ऊपर पेसाब कर दिया तो, कभी किसी गांव में निम्न वर्ग के व्यक्ति को अपनी सादी मे घोडी पर बैठकर जबरन शादी मे जाने से रोका जाता है तो कभी किसी निम्न वर्ग के व्यक्ति द्वारा मूंछ रखने पर उच्च वर्ग के लोगो द्वारा हत्या कर दी जाती है तो कभी किसी निम्न वर्ग के व्यक्ति द्वारा अच्छा खाना, पहनावा पर उच्च जाति के लोगो द्वारा उसका सामाजिक बहिष्कार करना तथा आए दिन हमारी बहन, बेटियो, माताओ के साथ भेदभाव, छेडछाड, बलात्कार एवं उनकी हत्या जैसी वारदाते देखने और सुनने में आती है। जो सभ्य समाज के दोगलेपन को दर्शाता है। साथ ही दलितो, आदिवासियो और पिछडो का शोशण एवं उनके साथ भेदभाव करना कोई नई बात नही है ऐसे में राष्ट्रवाद की स्थापना कैसे स्थापित होगी ?

उपसंहार 
अंततः सच्चे अर्थो मे हमें राष्ट्रवाद की स्थापना करनी है तो पहले समाज मे पारदर्शिता स्थापित करनी होगी, समाज में व्याप्त असमानता को समाप्त करना होगा, एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था स्थापित करनी होगी जिसका उद्देश्य 'सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय' का होना चाहिए। एक स्वतंत्र एवं त्वरित न्यायिक व्यवस्था की नींव रखनी होगी, निष्पक्ष पुलिस एवं कानून व्यवस्था स्थापित करनी होगी, आम जनता के लिए सस्ती एवं सुलभ चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध होनी चाहिए तथा अच्छी शासन  व्यवस्था की स्थापना करनी होगी जो जनता के प्रति उत्तरदायी, पारदर्शी, निष्पक्ष स्वतंत्र, कर्तव्यपरक, शोषण एवं भेदभाव से मुक्त हो। हमें सामाजिक कान्ति की शुरुआत करनी होगी जो लोगो को समान शिक्षा और उनके मूल अधिकारो को लेकर संवेदनशील बने जो युगों-युगों तक सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन की याद दिलाती रहे।

डॉ० अम्बेडकर का लक्ष्य भारत को न सिर्फ राजनीतिक रुप से स्वतंत्र करना था बल्कि एक मजबूत, समृद्ध और सक्षम राष्ट्र बनाना था जो संघीय शासन प्रणाली के सच्चे आदर्शों को अपने में समाहित कर सके तथा देश के सभी नागरिको को एकता के सूत्र में बांध सके। वास्तव मे राष्ट्रवाद भौगोलिक सीमाओं के साथ-साथ समानता पर आधारित होना चाहिए। राष्ट्र को अक्षुण बनाये रखने के लिए जरुरी है कि आम जन मानस के उस असन्तोष को खत्म किया जाये जो धर्म, जाति, भाषा, श्रेष्ठवाद, क्षेत्रवाद, सामाजिक एवं आर्थिक विषमता के आधार पर उत्पन्न हुआ है। वास्तव मे राष्ट्रवाद और समाजवाद एक दूसरे के पूरक है। राष्ट्रवाद के लिए सामाजिक एकता का होना जरुरी हैं और सामाजिक एकता के लिए राष्ट्रवाद जरुरी है। राष्ट्रवाद और समाजवाद को अगर कोई स्थायित्व और मजबूती प्रदान करता है तो वह भारत का संविधान  है जो किसी भी प्रकार की कट्टरता, भ्रम, अराजकता, साम्प्रदायिकता और भेदभाव से बचा सकता है। एक आदर्श संविधान ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता और बन्धुत्व की भावना को स्थापित करता है जिससे एक समृद्ध और कल्याणकारी राष्ट्र का निर्माण होता हैं।