साइबर सिटी में उड़ेगा दौलताबाद का हर्बल कलर खरीददारो के गुरुग्राम से ही नही बल्कि देश भर से आ रहे ऑनलाइन ऑर्डर

अक्सर होली के रंग में कैमिकल होने के कारण लोगों को स्किन प्रॉब्लम होने के साथ ही आंखों में जलन होने की शिकायत रहती है, लेकिन गुरुग्राम में एक परिवार ऐसा है जिसकी तीन पीढ़ियां मिलकर ऐसा हर्बल कलर बना रही हैं जो न केवल किसी भी बीमारी से लोगों को दूर रखता है बल्कि इसके आंख और मुंह में जाने के बाद भी कोई एलर्जी अथवा प्रॉब्लम नहीं होती। पूरी तरह से खाद्य पदार्थों के माध्यम से यह रंग बनाकर दो महीने में तैयार किया जा रहा है। दादी ने जब इसकी शुरुआत की तो इसका ज्यादा प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया, लेकिन जब तीसरी पीढ़ी ने इसका मोर्चा संभाला तो अब इन हर्बल रंगों की डिमांड बढ़ गई। अब इस हर्बल रंग को न केवल स्टॉल लगाकर बेचा जा रहा है बल्कि ई कॉमर्स कंपनियों के जरिए भी इसका ऑनलाइन ऑर्डर लिया जा रहा है।

अक्सर होली के रंग में कैमिकल होने के कारण लोगों को स्किन प्रॉब्लम होने के साथ ही आंखों में जलन होने की शिकायत रहती है, लेकिन गुरुग्राम में एक परिवार ऐसा है जिसकी तीन पीढ़ियां मिलकर ऐसा हर्बल कलर बना रही हैं जो न केवल किसी भी बीमारी से लोगों को दूर रखता है बल्कि इसके आंख और मुंह में जाने के बाद भी कोई एलर्जी अथवा प्रॉब्लम नहीं होती। पूरी तरह से खाद्य पदार्थों के माध्यम से यह रंग बनाकर दो महीने में तैयार किया जा रहा है। दादी ने जब इसकी शुरुआत की तो इसका ज्यादा प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया, लेकिन जब तीसरी पीढ़ी ने इसका मोर्चा संभाला तो अब इन हर्बल रंगों की डिमांड बढ़ गई। अब इस हर्बल रंग को न केवल स्टॉल लगाकर बेचा जा रहा है बल्कि ई कॉमर्स कंपनियों के जरिए भी इसका ऑनलाइन ऑर्डर लिया जा रहा है।
दरअसल, साल 2002- 03 में दौलताबाद की रहने वाली संतोष देवी ने हर्बल कलर बनाने की शुरूआत की थी। फूल पत्तियों के साथ - साथ फलों एवं खाद्य सामग्री अरारोट के जरिए यह रंग बनाए जाते थे। इनमें और अधिक रंगत लाने के लिए इनमें फूड कलर मिलाए जाते थे। होली खेलते वक्त यदि यह रंग मुंह या आंख में चले भी जाते थे तो इसका कोई फर्क नहीं पड़ता था। शुरूआत में अधिकतम 200 किलो ही रंग बनाया जाता था जिसमें से भी रंग बचा रह जाता था, लेकिन अब समय के साथ-साथ इसमें बदलाव आया है और आज के वक्त में इसकी मांग बढ़कर 800 किलो तक पहुंच गई है।
संतोष की पोती अनीशा की मानें तो जब उनकी दादी ने हर्बल कलर बनाने शुरू किए तो उनके घर में हर साल रंगों को बनते देखने के लिए देश ही नहीं विदेश के लोग भी आते थे। यह देखकर उन्हें काफी अच्छा भी लगता था। समय के साथ जब उनकी उम्र बढ़ी तो उन्होंने इसके प्रचार प्रसार का जिम्मा लिया और फूड सेफ्टी विभाग में इसके लिए रजिस्ट्रेशन कराया। आज के वक्त में रंग बनाने के लिए परिवार की महिलाओं के साथ-साथ पड़ोस में रहने वाली महिलाएं भी उनका साथ देती हैं। हर्बल रंग बनाने में करीब दो महीने का समय लग जाता है। आज उनका रंग जगह-जगह लगाए जाने वाले स्टॉल के साथ-साथ ऑनलाइन भी बिक रहा है।
फिलहाल कैमिकल वाले रंगों को दूर कर हर्बल कलर की होली मनाने के लिए लोगों का रुझान बढ़ा है। ऐसे में उन्हें विश्वास है कि इस हर्बल कलर की मांग और अधिक बढ़ेगी और अगले साल होली आने तक यह मांग 800 किलो से बढ़कर 1200 से 1500 किलो तक हो जाएगी।