चकाचौंध का असर मेलों पर, संस्कृति हो रही लुप्त गांवों के मेले में पश्चिमी सभ्यता ने लगा दी है सेंध
स्थानीय निवासी शकुंतला, मीनू, जयसिंह व दरियाव सिंह का कहना है कि निश्चित रूप से यह बदलाव का दौर है। इसका असर कस्बे से होकर गांव की गलियों तक पहुंच गई है। मेलों में वह बात नहीं रही। क्योंकि एक तरफ जहां अपराधिक गतिविधियां बढ़ रही हैं वहीं मेलों में युवा वर्ग को वह सामान नहीं मिल पाता जो मिलना चाहिए।
चरखी दादरी। हरियाणा में पुराने जमाने में जहां कई दिनों से मेले का इंतजार करते थे और और खरीददारी कर मस्ती करते थे, वहीं मेले की पुरानी संस्कृति में अब पश्चिमी सभ्यता ने भी सेंध लगा दी है। नतीजतन, सामाजिक परिवेश पर असर पडऩे के साथ कई और परिवर्तन नजर आने लगे हैं। चकाचौंध का असर पर मेलों पर भी पडऩे लगा है और धीरे-धीरे नई पीढी मेलों से दूर हो रही है। ऐसे में पुरानी संस्कृति लुप्त होती जा रही है। दादरी शहर के स्वामी दयाल मंदिर व गोगा पीर के मेले में जो देखने को मिला, इसे बदलते परिवेश का ही असर कहेंगे कि यहां मेलों के प्रति लोगों में कोई खास प्रभाव नहीं है। वहीं पश्चिमी सभ्यता का असर होने के चलते युवा वर्ग मेलों से दूरी बनाए हुए है तो बुजुर्ग ही मेलों का महत्व समझते हुए पहुंच रहे हैं। गांवों के मेले में भी चाट की जगह चाउमीन की दुकान नजर आने लगी है।
यद्यपि आज भी ठेठ देहाती व्यंजन मसलन, झिलिया मुरही, कचरी, जिलेबी, दही-चूड़ा, ठेकुआ, माछ-भात आदि ही मानें जाते हैं। इसी ठेठ खानपान के कारण ही कोसी पुत्र औरों से अलग दिख जाते हैं। पहले गांव के मेले में जिलेबी, मुरही-झिलिया, टकड़ी का आनंद लेते थे। गांव के मेले में शहरी संस्कृति से दूर एक पीस या दो पीस नहीं बल्कि सेर या सवा सेर के हिसाब से लेते हैं तथा आपस में शेयर करते थे। अब ऐसे दुकानों पर भीड़ तो हैलेकिन पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध से जुड़े व्यंजन खासकर बर्गर, चाउमीन खूब बिकते नजर आ रहे हैं। स्थानीय निवासी शकुंतला, मीनू, जयसिंह व दरियाव सिंह का कहना है कि निश्चित रूप से यह बदलाव का दौर है। इसका असर कस्बे से होकर गांव की गलियों तक पहुंच गई है। मेलों में वह बात नहीं रही। क्योंकि एक तरफ जहां अपराधिक गतिविधियां बढ़ रही हैं वहीं मेलों में युवा वर्ग को वह सामान नहीं मिल पाता जो मिलना चाहिए।